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  • मैं मिलूंगा वहीँ….!

    ये गाड़ी तुम्हारी अब पुरानी सी है दो घोड़े भी इसके जवाँ से नहीं लड़खड़ाहट पहियों की है इस कदर ख्वाब गिर जाते हैं जब गुजरते हो तुम उड़ के आ जाते हैं फिर झरोखों से वो आ के फस जाते हैं घर के टहनात में फिर घूमते हैं परिंदों के मानिंद वो जैसे घुलते […]

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  • बहानेबाज़ी ….!

    दुनिया ये तमाशा खेल मदारी जैसा है हर शख्स खिलौने सा पैमाने के आखिरी हिस्से पे भिखारी जैसा है लकीरें खेंच कर आँगन में उसने जम के कुश्ती की हर एक प्यादा मेरे घर का शिकारी जैसा है ताबूत की हर एक कील पे भी हक़ जमाते हैं दीमक बन के लग जाएँ तो ये […]

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  • चश्मदीद….!

    तन्हाईयाँ बंद कर के लिफाफे में सिराहने रख के सोया हूँ तो तुम्हारे होने का एहसास भी है और तुमसे मिलने की उम्मीद भी मसला तुमसे किसी राबते का नहीं बल्कि मुश्किल तो मेरी ज़िद्द है जो न चाहो तो भी आड़े आती है दायरों का वो कोना जो तुमने चुन लिया है जरा शख्त […]

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  • बस रहने दो…!

    सफ़र के आखिरी नक़्शे में सब धुन्धला सा है थकन भी इस कदर हावी है कि बस रहने दो मंज़िलें अगर ला सको तो ला के रख दो यहाँ हौसलों को नींद आई है अब इन्हें सोने दो बाजार लुट गए सारे जो ख्वाओं में थे और चेहरे भी खुल के आ गए जो हिजाबों […]

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  • डायरी …!

    लब्जों में खामियां भी थीं बिखरे सफों में क्या देखा उसने किताब ए गुफ्तगू में सुबह से शाम की उसने इसको आदतों का चश्मा नहीं तो और क्या कहिये मुक़र्रर होती मुलाकात की कोशिश भी नाकाम की उसने चेहरे की सिलवटों को उधेड़कर कई राज़ खुलते रहे जिनको छुपाने की कोशिशें तो तमाम की उसने […]

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  • चिट्ठी ….!

    कुछ इस तरह रूठी कलम कागजों से किसी को चिट्ठी लिखे अब ज़माने हो गए अलफ़ाज़ तो अब भी हैं मगर महकते कम हैं जैसे कि महकते थे चिट्ठी खोलते वक़्त उस गर्म खीर की टपकन जैसे जो गर्म तश्तरी को धकेल के गर्म चूल्हे की मिट्टी को सोंधा कर दे जब चेहरे के नक्श […]

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  • चापलूस चीटे…!

    मैंने लब्ज हैं बिखेरे वो जिनसे गुजर रहे हैं मैं लिख कर नहीं समझा वो पढ़ कर समझ रहे हैं बहती नदी पे एक दिन हमने आसमाँ लिखा था वो बहती मछलियों को अब पंछी समझ रहे हैं यूँ ही हंसी में एक दिन कोहरे को लिखा बादल वो सर झुका के बोले अरे ये […]

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  • अर्जी …!

    एक अर्जी है ये अपना तख्त ओ ताज़ ले जाओ ये अपनी बांसुरी और टुटा हुआ ये साज़ ले जाओ चिरागों से उलझ कर जल गए कितने तराने गुजरते वक़्त की बंदिश अपनी आवाज़ ले जाओ ये आरती की धुन ये अजाने लड़ाती हैं धर्म के नाम पर अब ये कौमी गीत गाती हैं उसका […]

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  • यादों के पैबंद …!

    दायरों का दर्द जब भी हुआ तो उसने यादों के रंग बिरंगे पैबंद लगा डाले कुछ यूँ भी उम्र अब बसर भी होती है और बेअसर भी ये मसला नज़र का है या दीवारों से सच में उतरने लगे हैं वो सारे रंग जो कभी हथेली पे तो कभी कमीज पे चिपकते थे यूँ तो […]

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  • उड़ानें…!

    हवाओं मे ठहराव क्या आया सारी उड़ानें रद्द हो गयीं कागज़ समेट कर फिर से ताख में रख दिए हमने अब हर तरफ बेचैनी है । वो सारी उमंगें जो जल्दबाज़ी में थी अब इंतज़ार में हैं हौसलों से उड़ सको तो उड़ो किसने रोका है तुम्हें या आओ बैठें किसी मुंडेर पे सपने देखें […]