ये गाड़ी तुम्हारी अब पुरानी सी है दो घोड़े भी इसके जवाँ से नहीं लड़खड़ाहट पहियों की है इस कदर ख्वाब गिर जाते हैं जब गुजरते हो तुम उड़ के आ जाते हैं फिर झरोखों से वो आ के फस जाते हैं घर के टहनात में फिर घूमते हैं परिंदों के मानिंद वो जैसे घुलते […]
Author: Vinay Kumar Gangwar
बहानेबाज़ी ….!
दुनिया ये तमाशा खेल मदारी जैसा है हर शख्स खिलौने सा पैमाने के आखिरी हिस्से पे भिखारी जैसा है लकीरें खेंच कर आँगन में उसने जम के कुश्ती की हर एक प्यादा मेरे घर का शिकारी जैसा है ताबूत की हर एक कील पे भी हक़ जमाते हैं दीमक बन के लग जाएँ तो ये […]
चश्मदीद….!
तन्हाईयाँ बंद कर के लिफाफे में सिराहने रख के सोया हूँ तो तुम्हारे होने का एहसास भी है और तुमसे मिलने की उम्मीद भी मसला तुमसे किसी राबते का नहीं बल्कि मुश्किल तो मेरी ज़िद्द है जो न चाहो तो भी आड़े आती है दायरों का वो कोना जो तुमने चुन लिया है जरा शख्त […]
बस रहने दो…!
सफ़र के आखिरी नक़्शे में सब धुन्धला सा है थकन भी इस कदर हावी है कि बस रहने दो मंज़िलें अगर ला सको तो ला के रख दो यहाँ हौसलों को नींद आई है अब इन्हें सोने दो बाजार लुट गए सारे जो ख्वाओं में थे और चेहरे भी खुल के आ गए जो हिजाबों […]
चिट्ठी ….!
कुछ इस तरह रूठी कलम कागजों से किसी को चिट्ठी लिखे अब ज़माने हो गए अलफ़ाज़ तो अब भी हैं मगर महकते कम हैं जैसे कि महकते थे चिट्ठी खोलते वक़्त उस गर्म खीर की टपकन जैसे जो गर्म तश्तरी को धकेल के गर्म चूल्हे की मिट्टी को सोंधा कर दे जब चेहरे के नक्श […]
चापलूस चीटे…!
मैंने लब्ज हैं बिखेरे वो जिनसे गुजर रहे हैं मैं लिख कर नहीं समझा वो पढ़ कर समझ रहे हैं बहती नदी पे एक दिन हमने आसमाँ लिखा था वो बहती मछलियों को अब पंछी समझ रहे हैं यूँ ही हंसी में एक दिन कोहरे को लिखा बादल वो सर झुका के बोले अरे ये […]
यादों के पैबंद …!
दायरों का दर्द जब भी हुआ तो उसने यादों के रंग बिरंगे पैबंद लगा डाले कुछ यूँ भी उम्र अब बसर भी होती है और बेअसर भी ये मसला नज़र का है या दीवारों से सच में उतरने लगे हैं वो सारे रंग जो कभी हथेली पे तो कभी कमीज पे चिपकते थे यूँ तो […]