हर रोज नया कुछ लिखते हो
लेखक हो क्या ?
एक लाइन लिखते हो फिर
खा जाते हो नाख़ून दो चार
इधर उधर ढूंढते हो
क्या शब्द भी भला ऐसे मिल जाते हैं
मुझे तो ऐसे पुराने जूते तक नहीं
मिलते ।
जाने क्या बड़बड़ाते हो जब
नींद में औंधे होते हो
फिर उठते हो, हँसते हो
कलम लेके दो लाईने लिखते हो
और चल देते हो बीड़ी पीने
अरे उधारी ज्यादा हो गयी है
पनवारी की क्या ?
दिमाग से हिले हिले से रहते हो
आज कल ।
सफों की गेंद बना के यहाँ वहां
फेक देते हो
उम्र से अब बच्चे नहीं हो तुम
बेमतलब की बातें करते हो
कहीं भांग सांग तो नहीं पीते न
घर का किराया देते हो तो
घर में रहा भी करो
ये मस्जिद नहीं है जो नमाज
पड़ने आते हो ।
ये चौराहे पे लोगो को क्या
सुनाते हो ?
सुना है चाय की टपरी पे भी
गुनगुनाते हो
कुछ कविता सविता लिखते हो ?
या फ़िल्मी गाने गाते हो
फ़िल्मी गाने ही होंगे
कवितायों पे अब कौन हँसता है,
कौन रोता है ।
~विनय