लम्हें !

कुछ कलियाँ गुलाब की
जो तोड़ के लाये थे
लम्हे अब इंतज़ार में हैं
खिलने को बेक़रार हैं
फूलों की तरह
लव जो बुदबुदाने को हैं
तेरी आँखों में
मुस्कराने को हैं
बेताब हैं की रात गुजरे
नया दिन हो
और बने कोई किस्सा
गुजरती नींद का
हाथ में हाथ हो
और आँखों में आँखें
और ख़ामोशी फिर से
आँखें खोले
तुमसे बोले
की प्यार था जो की है
और होगा
शायद उफ़क़ की
आखिरी हद
तक
तो हंसो न आज फिर
से मेरे लिए
चलो न साथ फिर
से मेरे लिए
कहो न फिर से एक बार
जो कहा था तुमने
और सुना था गलियों ने
और वादे हुए थे
साथ चलने के
जो अब तक हैं, हाँ अब तक हैं ।

~विनय

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