दायरों का दर्द
जब भी हुआ तो उसने
यादों के रंग बिरंगे
पैबंद लगा डाले
कुछ यूँ भी उम्र
अब बसर भी होती है
और बेअसर भी
ये मसला नज़र
का है या दीवारों से
सच में उतरने लगे हैं
वो सारे रंग जो कभी
हथेली पे तो कभी
कमीज पे चिपकते थे
यूँ तो अखबार
की सारी ख़बरें
पढ़के सुनाता हूँ
हर सुबह मेरी परछाई को
वो अब बूड़ी हो
गयी है उसे दिखाई
नहीं देता
वो हर बार की तरह
गर्मी की छुट्टियां फिर से
आ चुकी हैं
मगर ऊपर वाले सारे कमरे
अब तक बंद हैं
उन्हें इंतज़ार है
बदहवास से खटकते हैं
कभी हवा तेज़ हो तो
बेनामी बच्चों की आवाज़ें
आती हैं गली से
पूछते हैं, कोई आया क्या ?
वो अंदर नहीं आते
मैं जवाब देता हूँ और वो
लौट जाते हैं
पिछली तीन गर्मियां
अकेली ही आके
लौटी हैं यूँ तो मगर
इस गर्मी में आग ज्यादा है
मुमकिन है उनके
आने का मीज़ान बने !
~विनय