वो नदी का किनारा याद है
जहाँ इत्तेफ़ाकन ही सही
कुछ यादें छोड़ आये थे तुम
कभी आओ और देखो वहां
यादों का बाज़ार लगता है
ऐसा कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं
लेकिन हाँ जब दिल में टीस हो
और नींद आधी हो या न हो
मौसम में नमी हो और रास्तो
पे फिसलन ठीक ठाक हो
समझ लेना बाजार जोरो पे है
इस बार की बारिश में शायद
कुछ और दुकाने सजेगी
कुछ लकड़ियों के ढेर पे होंगी
तो कुछ जमींदोज भी होंगी
मुमकिन है की तुम्हे वो रस्ता
अब भी याद हो और लम्हात भी
जहाँ तुम्हारी हर नज़र
किसी के रहने का दस्तखत थी
इंतज़ार आज भी ढूंढता
वो बीते हुए पल जो आज भी
जिन्दा हैं एक और याद बनने को
क्या याद है वो नदी का किनारा ?
जहाँ इत्तेफ़ाकन ही सही
कुछ यादें छोड़ आये थे तुम
कभी आओ और देखो वहां
यादों का बाज़ार लगता है ।
~विनय