मैं मिलूंगा वहीँ….!

ये गाड़ी तुम्हारी अब पुरानी सी है
दो घोड़े भी इसके जवाँ से नहीं
लड़खड़ाहट पहियों की है इस कदर
ख्वाब गिर जाते हैं जब गुजरते हो तुम
उड़ के आ जाते हैं फिर झरोखों से वो
आ के फस जाते हैं घर के टहनात में
फिर घूमते हैं परिंदों के मानिंद वो
जैसे घुलते हुए दिल के जज्वात हों
एक लिफाफा बना कर के रख छोड़ा है
मैंने घर के पुराने एक अखबार से
भर के रख देता हूँ उनको तकिये तले
जैसे हो ये अमानत तुम्हारी कोई
अबकी आना मोहब्बत के बाज़ार में
चिलमन की चुभन, नींद के तार में
मैं मिलूंगा तुम्हें अब भी उस गली में
ख्वाब चुनता हुआ और संभालता हुआ
हाथ मलता हुआ रंग बदलता हुआ
थोड़ा बुझता हुआ थोड़ा जलता हुआ
जहाँ लड़खड़ाए थे पहिये तुम्हारे कभी
और टूटे थे ख्वाबों से लम्हे कई
वहीँ हाथों में रंगीन साफा लिए
और ख्वाबों का वो एक लिफाफा लिए
मुझसे मिलना वहां मैं मिलूंगा वहीँ |
~विनय

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