बहानेबाज़ी ….!

दुनिया ये तमाशा
खेल मदारी जैसा है
हर शख्स खिलौने सा
पैमाने के आखिरी हिस्से पे
भिखारी जैसा है
लकीरें खेंच कर आँगन में
उसने जम के कुश्ती की
हर एक प्यादा मेरे घर का
शिकारी जैसा है
ताबूत की हर एक कील पे भी
हक़ जमाते हैं
दीमक बन के लग जाएँ तो ये
रिश्ते भी खाते हैं
हुनर ये नियत खराबी का
एक सवारी जैसा है
वो दरवाजे की खड़कन् से
टूटे थे पैमाने
जमीं पे लेट के पीने लगे
जितने थे दीवाने
ये खून जब भी लगा होठों पे
तो फिर कहाँ छूटा
ये शौक भी अमीरों का
एक बीमारी जैसा है
दवाखाने जितने थे शहर में
सभी नीलाम हो गए
वो बहते दर्द के दरिया
सुपुर्द ए जाम हो गए
आज छूटेगी कल छोड़ेंगे
इसी में उम्र गुजरी है
बहानेबाज़ी का ये मंज़र भी
बड़ा सरकारी जैसा है
दुनिया ये तमाशा
खेल मदारी जैसा है
हर शख्स खिलौने सा
पैमाने के आखिरी हिस्से पे
भिखारी जैसा है ।
~विनय

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