लब्जों में खामियां भी थीं
बिखरे सफों में क्या देखा उसने
किताब ए गुफ्तगू में सुबह से
शाम की उसने
इसको आदतों का चश्मा नहीं
तो और क्या कहिये
मुक़र्रर होती मुलाकात की
कोशिश भी नाकाम की उसने
चेहरे की सिलवटों को
उधेड़कर कई राज़ खुलते रहे
जिनको छुपाने की कोशिशें
तो तमाम की उसने
वो जो डायरी में रक्खे थे
कई फूल मुद्दत से
सफे पलटने में जब बिखरने लगे
तो संभाला उसने
दिखाबे की जल्दबाज़ी की और
चन्द पन्नें पलटे
मेरी नज़रों से बच निकलने के कई
इंतज़ाम किये उसने
खामोशियाँ सवाल बनके लबों तक
तो आयीं उसके
मगर बो सब आँखों के बियांबां में
गुमनाम किये उसने
अतीत ए खास जितने भी उस
बेबफा डायरी में थे
जाते जाते मुस्कराते हुए वो सारे पन्नें
सुपुर्द ए शाम किये उसने
लब्जों में खामियां भी थीं
बिखरे सफों में क्या देखा उसने
किताब ए गुफ्तगू में सुबह से
शाम की उसने ।
~विनय