कुछ इस तरह रूठी
कलम कागजों से
किसी को चिट्ठी लिखे
अब ज़माने हो गए
अलफ़ाज़ तो अब भी हैं
मगर महकते कम हैं
जैसे कि महकते थे
चिट्ठी खोलते वक़्त
उस गर्म खीर की टपकन
जैसे जो गर्म तश्तरी को
धकेल के गर्म चूल्हे
की मिट्टी को सोंधा कर दे
जब चेहरे के नक्श भी
अल्फ़ाज़ों में नज़र आते थे
और ख़ुशी की ख़बरें
अकसर सफ़र में रिसती और
छलकती हुई आती थीं
कई बार उसकी चिपकन् को
हाथों में महसूस किया मैंने
और जब टपकने लगते थे
अश्क स्याह धारियों से
जब चिट्ठी का एक कोना
कोई कम भेजता था
वो साइकिल वाला डाकिया
भी अब मोटर से आता है
चिट्ठियां तो नहीं मगर
ख़बरें अभी भी लाता है
जब कभी जिक्र करता हूँ
उससे गुजरते वक़्त का
तो बस हंस के गुजर जाता है
इस आवाज़ के साथ
वो रिवाज ए आदम थे
अब पुराने हो गए
कुछ इस तरह रूठी
कलम कागजों से
किसी को चिट्ठी लिखे
अब ज़माने हो गए ।
~विनय