चापलूस चीटे…!

मैंने लब्ज हैं बिखेरे
वो जिनसे गुजर रहे हैं
मैं लिख कर नहीं समझा
वो पढ़ कर समझ रहे हैं
बहती नदी पे एक दिन
हमने आसमाँ लिखा था
वो बहती मछलियों को
अब पंछी समझ रहे हैं
यूँ ही हंसी में एक दिन
कोहरे को लिखा बादल
वो सर झुका के बोले
अरे ये तो गरज रहे हैं
दुनिया के कारखाने
ऐसे ही चल रहे हैं
यहाँ नीम के बगीचे में
हाँ, आम लग रहे हैं
यहाँ रशुख वाले जूतों में
बस गुड़ ही गुड़ लगा है
जिनपे चापलूस चीटे
आ-आकर चिपक रहे हैं
~विनय

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