खैर जाने दो ..!

पुर्जा पुर्जा खोल कर
बिखेरी है ज़िन्दगी
ज़मीं पे पड़े हैं अब
सारे गम,सारी खुशियाँ
मजबूरियाँ, जिनकी
अहमियत शायद तब थी
जब तक जुड़े थे
तार सारे दूसरे हिस्सों से
अब किस्सा कुछ यूँ है
कि हर हिस्से में तड़प है
न उड़ने की ख्वाइश
और न गिरने का डर
अब न कोई अपना है
न पराया,अब न कोई
हिन्दू है और न मुसलमान
अगर कुछ है तो जमीं पे
बिखरा पड़ा इंसान
बंद मुट्ठी जो अकड़ी है
चंद उँगलियों के जाल में
सीना जो हर स्वांस पे
थोड़ा और चौड़ा होता था
अब स्थिर है, जैसे किसी
सुनसान से जंगल में
किसी कुम्भ का पानी
लोग अब भी उसे धर्म
और जात के चुंगल में
फ़साने में लगे हैं
पिंजरे का तोता अब
आसमान में है, पिंजरे पे
रोगन का मतलब कुछ
शेष कहाँ रहा अब
कच्चे रस्ते पे कंकड़ फेको
या कुदाल चलाओ बस
धूल ही उड़ती है
भूख लिखकर मिटाने से
कोई भूख मिटती है भला
अब कौन समझेगा
अब किसको समझाएं
खैर जाने दो यहाँ हर
शख्स समझदार है ।
~विनय

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