कश्मकश…!

कभी कभी ये एहसास होना
की मैं कहीं खुद में कैद हूँ
तो आँखों की चिलमन भी
सलाखों सी लगती है

मगर क्यों होता है ये एहसास
अकेलापन या कोई डर
डर, शायद बिफ़ल होने का
ज़िन्दगी की इस जद्दोजहद में

स्वपन जो रेलगाड़ी की रफ़्तार
से आते जाते रहते हैं
और हर सवेरा इस कश्मकश में
गुजरता है की स्वपन क्या था

हाँ मैं भूल जाता हूँ, मगर कोई
तो होगा जो याद रख पाता होगा
एक काम करो अखबार में इस्तेहार
देके देखो, शायद मुलाकात हो

मिले तो उसे रोकना और न रुके
तो थोड़ी घूस देके मना लेना
आज कल सब लेते हैं
घर तो उसका भी जरूर होगा

मायने पूछने हैं कुछ बातों के
जैसे अगर स्वपन में मैं माँ से मिला
तो सर में दर्द थोड़ा कम क्यों था
मैंने कोई बाम नहीं लगाई यूँ तो

जैसे स्वपन में बारिश हुई
तो मेरे चबूतरे पे पानी क्यों था
मैंने उसे चीख के बुलाया था मगर
उठा तो घर में सन्नाटा क्यों था

वो परदे जो अब तक नहीं ठहरे
मगर ये तूफ़ान तो स्वपन में था
फूल जब स्वपन में खिले थे
तो अब मेरी हथेली पे रंग क्यों है

मैं जानता हूँ तुम मुझे पागल
समझते हो या शायद सनकी भी
मगर अभी तुमने उम्र का ढलान कहाँ
देखा है, यहाँ फिसलन बहुत है
यहाँ ख्वाब भी फिसलते हैं ।

                               ~विनय

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