अर्जी …!

एक अर्जी है ये अपना
तख्त ओ ताज़ ले जाओ
ये अपनी बांसुरी और
टुटा हुआ ये साज़ ले जाओ
चिरागों से उलझ कर
जल गए कितने तराने
गुजरते वक़्त की बंदिश
अपनी आवाज़ ले जाओ
ये आरती की धुन ये
अजाने लड़ाती हैं
धर्म के नाम पर अब
ये कौमी गीत गाती हैं
उसका मंदिर भी ले जाओ
मेरी मस्जिद भी ले जाओ
यहाँ कोई नहीं समझा
तेरी कश्ती और पतवारें
तेरे ही नाम से बिकती
यहाँ खंजर और तलवारें
खुदा भी बिक रहा है अब
किराने की दुकानों में
आग सीने में जलती है
यहाँ माचिश नहीं मिलती
अब मेरे शहर से बारूद के
बाजार ले जाओ ।
~विनय

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