चलो अब घर चलते हैं
शाम होने को है
सवेरा जो जेबों में
भर के निकले थे
खर्च हो गया
सपने जो ओस की
बूंदों से उठा लाये थे
फिसल के माटी
हो गए शायद
चलो अब घर चलते हैं
शाम होने को है
दीये भी जला के
रख दिए चौखट पे
आओ अब इंतज़ार करें
पतंगों के आने का
खेल क्या होगा
ये समझते हो तुम
कहते हैं बोलने से
नज़र लगती है
आगाज अच्छा है
चलो अब चुप रहते हैं
अंजाम होने को है
चलो अब घर चलते हैं
शाम होने को है
चश्मा जो आँखों पे है
जरा नज़र पे लगाओ
तो दुनिया देखो
घर की दीवारों में क़ैद
रहते हो कौन हो तुम
लोग पागल समझते हैं
कभी छत पे ही अाओ
परिंदे पूंछते हैं खैर ओ खबर
उनसे क्या बोलूं भला
चाँद से बात करो और
बेवजह का शोर मचाओ
कहीं और न सही
खुद के घर ही आओ
शिकायत इस घर को है
इसके हर एक कोने को है
चलो अब घर चलते हैं
शाम होने को है ।
~विनय