अखबार.. !

सुबह हुई फिर अखबार आया
लौटकर फिर से इतबार आया
खबरें यहाँ की ख़बरें वहां की
आ गयी छपके ख़बरें जहाँ की

पलटता हूँ पन्नें पढ़ता हूँ खुद को
वो ख़बरें जिनसे है महरूम दुनिया
वो मेरे दिल में हैं और दिमागों में हैं
कुछ बेचैन कड़ियों के धागों में हैं

शिकवा ओ शिकायत इतनी सी है
एक घड़ी मेरे घर में जो रूकती नहीं
मैं थक भी जाऊं पर ये थकती नहीं
पर खबर ये अखबारों में छपती नहीं

एक सन्नाटा था जब उठे थे सुबह
अब शोर पहियों के गड़ गड़ का है
गलियारे में बच्चों का मेला लगा है
दिन उनकी गेंदों के धड़ धड़ का है

वो घर के किनारे पे क्यारी बनाकर
कोई वो रहा है ख्वाओं के अवनिंद
फूलों सा गुलदस्ता चेहरे पे लेके
कोई गुनगुनाता है मानिंद मानिंद

कोई धूप में आज पसरा हुआ है
कोई अपने छज्जे पे रमनीन् है
कोई निकला है थैले में बाजार भरने
कोई अकेला भी है कोई ग़मगीन है

सबका अलग अपना संसार है
हर किसी का अपना ही इतबार है
दुनिया के चेहरे पे खबरों का पढ़ना
कहाँ इस से अच्छा कोई अखबार है
~विनय

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